बुधवार, 17 मार्च 2010

कौन थी दुनिया की पहली पत्रकार

वह हर रोज रात के अन्तिम पहर स्नान करने के लिए जाया करते थे. नहाने सेपहले वह अपने कपड़े नदी के किनारे उतार कर रख दिया करते थे. उस दिन भीनहाकर जैसे ही वह किनारे आने वाले थे उन्होंने देखा कि कोई स्त्री उनकेकपड़ों पर बैठी थी. बहुत कहने पर भी वह नहीं उठी. एडम्स ने भी एनी कोपहचान लिया. एनी ने एडम्स को किसी खास मसले पर एकांतिक साक्षात्कार केवायदे के बाद ही उठने के लिए तैयार हुई.एनी न्यूपोर्ट रायल जिन्हें दुनिया की पहली पत्रकार माना जाता है इतनीसाहसी थी जो अमेरिका के दूसरे राष्ट्रपति जान क्यून्सी एडम्स (1735-1826) से इस तरह का व्यवहार कर सकती थी. हालांकि इस घटना के बारे में लोगोंका मानना है कि यह मनगढ़ंत है. लेकिन यह घटना इतनी प्रचारित रही कि किइसे झुठलाना मुश्किल है.अमेरिका की इस पत्रकार ने 1831 में जिस समय वास्तविक रूप से पत्रकारिताशुरू की उस समय वह 62 वर्ष की थी. उन्होंने ‘पाल फ्राइ’ नामक साप्ताहिकपत्र शुरू किया. वह कांग्रेस के परिसर में अखबार बेचा करती थी. यह जानकरभी हैरत होती है कि वह राजनीति के घोटालों को न केवल भांप लेती थी बल्किउन्हें निडरता के साथ प्रकाशित करती थी. इस कारण राजनीतिज्ञ भी उनसे बचकररहते थें.लेकिन इसे उनका आत्मविश्वास कहें या उत्साह जिसके कारण वह समाचार कीसत्यता की जांच भी नहीं करती थी. ऐनी का पत्र रविवार को भी डाक वितरण कासमर्थक, मंत्रियों-पादरियों का विरोधी, लोक-जीवन में नैतिकता का पक्षधरऔर कैथोलिकों के प्रति सहिष्णुता बरतने का प्रचारक था. यह भी माना जाताहै कि ऐनी ने अपने देश की प्रमुख बस्तियों को छान मारा. उन्होंने वहां केनिवासियों के सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक दशा का बड़ी गहराई से अध्यनकिया और उसी के आधार पर खबरें लिखीं.

मंगलवार, 16 मार्च 2010

साइकिल से दुनिया की राह

साइकिल का पहिया घूमता ही जा रहा था. वह दुनिया की भीड़ में चला जा रहा था. लोग उसे देखते और नजरअन्दाज कर देते थे. लेकिन जब उनके मिशन के बारे में जानते तो उनका खूब सहयोग करते थे. उसका मकसद था दुनिया भर की संस्कृतियों को जानना और भारतीय संस्कृति को दुनिया में प्रोत्साहित करना. सबसे मजेदार बात तो यह है कि दुनिया भर के देशों की यात्रा के दौरान वह स्कूल में पढ़ाते थे और उसी से अपना खर्चा चलाते थे और आगे की योजना बनाते थे.
84 देशों की यात्रा करने वाले 60 वर्ष के सुभाष पंछी सहगल एक बार फिर साइकिल से पूरी दुनिया घूमना चाहते है. इस बार वह 117 देशों की यात्रा करना चाहते है. सहगल पुरानी दिल्ली के तेलीवाड़ा के रहने वाले है. उन्होंने अपने सफर के दौरान ही अपने नाम के साथ पंछी लगाया. बचपन से ही साहित्य पढ़ने के बेहद शौकीन सहगल को पूरी दुनिया की यात्रा करने की प्रेरणा भी साहित्य पढ़कर ही मिली. सहगल कहते है, “ मैनें हिन्दी की किताब घुमक्कड़शास्त्र पढ़ी. उसका मुझ पर काफी गहरा प्रभाव पड़ा. तभी से मैनें भारत की यात्रा शुरू की लेकिन वह मेरे लिए काफी नहीं था. इससे मुझमें और जानने की इच्छा जागी.”
सहगल आज भी लोगों के सहयोग को नहीं भूल पाते. सहगल बताते है कि 1972-80 तक के उनके इस यादगार सफर में दुनिया भर के कई भारतीय संगठनों ने उनकी मदद की. इस दौरान उन्होंने 1,34,000 किमी की यात्रा की. सहगल बताते हैं कि इन्हीं संगठनों के द्वारा स्थानीय मीडिया के साथ उनके साक्षात्कार आयोजित कराए जाते थे और इनके मिशन को पूरी दुनिया में प्रसिद्ध बनाया गया. इतना ही नहीं इन सारे प्रयासों की वजह से ही उनके रहने और खाने-पीने की समस्या हल हो गयी क्योंकि लोग खुले दिल से उनका स्वागत करते थे.
लेकिन इतने सारे देशों की यात्रा करने के बावजूद वह संतुष्ट नहीं है. वह कहते हैं, “ मैं 117 देशों की यात्रा करना चाहता था लेकिन 84 देश ही घूम सका. उनमें से ज्यादातर एशिया, यूरोप और अफ्रीका के थे.” उनका मानना है कि साइकिल भय से लड़ने का बहुत ही बेहतरीन माध्यम है. यह दूसरे देशों की संस्कृति को बेहतर रूप में जानने में मदद करता है. हालांकि इससे सफर करते समय कई समस्याएं सामने आती हैं लेकिन जब कोई समस्याओं को मुश्किल समझे. अगर उन्हें नजरअंदाज कर दिया जाए तो इससे यात्रा करने में भरपूर आनंद मिलता है.
इस समय अमेरिका में रह रहे सहगल अपनी साइकिल यात्रा दुबारा शुरू करना चाहते है. क्योंकि वह आज के युवा वर्ग को इस तरह के अनुभव के लिए प्रेरित करना चाहते हैं. उन्हें लगता है कि आज का युवा वर्ग भारतीय संस्कृति के बारे में उतना नहीं सोचता. इसे बदलने के लिए मैं हिन्दी में गेम्स बना रहा हूं ताकि अमेरिका में भी हिन्दी भाषा के प्रति युवाओं में रूचि जगा सकू. वह खेलों के प्रति भी युवाओं को प्रोत्साहित करना चाहते हैं.
वह कहते हैं,” मुझे पूरा विश्वास कि मैं साइकिल पर एकबार फिर पूरी दुनिया घूम सकता हूं लेकिन इस बार मेरा लक्ष्य युवाओं को खेलों के लिए प्रोत्साहित करना होगा.”

राज अगले और पिछले जन्म का

हेवी मेकअप के साथ खूबसूरत महिलाएं ही हर जगह दिखायी दे रही हैं. समझ नहीं आता कि किसके पास जाए. कहीं दो चार पुरूष भी भाग्य को समझते हुए दिखायी दे रहे हैं. लगता है कि लोगों को उनका अगला-पिछला बताने के लिए सारे ज्योतिषी बेताब हैं.
ज्योतिष में विश्वास रखने वाले और न रखने वाले दोनों ही तरह के लोग ही दिखायी पड़ रहे हैं. उन्हें लोग न कहकर उपभोक्ता कहना ही ज्यादा बेहतर होगा क्योंकि उन्हें अपने भूत और भविष्य को जानने के लिए दाम चुकाना है. लेकिन कितना यह तो ज्योतिषी पर भी निर्भर करता है कि वह कितना प्रसिद्ध है. सुबह-सुबह न्यूज चैनलों पर छाये रहने वाले ज्योतिषी और टैरोकार्ड रीडरों के पास सबसे ज्यादा भीड़ है. नीरा सरीन जैसी जानी-मानी ज्योतिषी भी मेले में लोगों के भविष्य को बता रही हैं.
इसलिए शायद दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में सबसे ज्यादा कमाई लोगों को उनके भूत और भविष्य की जानकारी देने वालों की हो रही है. नक्षत्र हाल में पहुंच कर ऐसा लगता है जैसे किसी ज्योतिष मेला में आ गये हैं. एक हाथ देखने की कीमत सौ रूपये से शुरू होती है. इसी तरह से टैरो कार्ड रीडर एक सवाल पूछने के सौ से लेकर हजार रूपये तक वसूल रहे हैं. लोगों को आकर्षित और प्रभावित करने के लिए कथित भविष्यज्ञाताओं ने अपने स्टालों को पानी, धुएं, फेगंशुई और आकर्षक स्लोगनों का खूब इस्तेमाल किया है. आनंद और भारती जैसे ज्योतिषी अपने चमकदार कपड़ो और आकर्षक व्यक्तित्व से लोगों को खूब भा रहे हैं.
इनकी भविष्यवाणी कितनी सही और कितनी गलत, इसका अंदाजा लगा पाना तो मुमकिन नहीं है लेकिन युवाओं में अपनी किस्मत जानने का काफी क्रेज है. दिल्ली विश्विद्यालय के छात्र अनूप ने बताया कि वह इस सब पर विश्वास करते हैं क्योंकि काफी बातें सच भी हो जाती हैं. वहीं दूसरी ओर छात्रा ईशा का मानना है कि अगर अच्छी-अच्छी बाते उनके बारे में बतायी जाए तो वह विश्वास करती है वरना नहीं.
इस हाल में भीड़ को देखकर लग रहा था कि इंसान अपने कर्मों से ज्यादा अपनी किस्मत को लेकर उत्सुक रहता है और उसके बारे में केवल अच्छा ही सुनना चाहता है.
इतना ही नहीं लोगों को समस्याओं से निजात दिलाने के लिए उनके ग्रहों के हिसाब से भी वह नग पहन सकते है क्योंकि एक से एक नामी सर्राफा मालिकों ने अपने स्टाल लगाए हैं. जयपुर से लेकर मुंबई तक के बड़े-बड़े ज्वैलर्स मेले में खूब कमाई कर रहे हैं. इन दुकानों पर महिलाओं की भीड़ को देखकर ट्रेड फेयर की याद आने लगती है. इन दुकानों पर चूड़ियों, मालाओं, कुंडलों की बिक्री महंगे दामों पर भी खूब हो रही है. कई बार लगता है कि यह विश्व पुस्तक मेले का नहीं बल्कि सरोजिनी या लाजपत नगर का द्रश्य है.
इन्हीं सब के बीच एक दुकान पर ढाई सौ किस्म के आचार, सुपारी, सौंफ, पान आदि धड़ल्ले से बिक रहे हैं. लेकिन इससे एक सवाल उठता है कि विश्व पुस्तक मेले जैसे बड़े आयोजनों मे यह कितना ठीक है कि लोगों को रिझाने के लिए इस तरह के हथकंडों को अपनाया जा रहा है. यह सच भी तब साबित होता है जब सबसे ज्यादा भीड़ इसी तरह के स्टालों पर दिखायी देती है. इतना ही नहीं विज्ञान और तकनीक जैसे इतने महत्वपूर्ण प्रकाशकों को हाल में भी जगह नहीं मिलती. बाजारवाद और उपभोक्तावाद की संस्कृति में लोगों के बदलते रूझानों के चलते हम किस ओर जा रहे है यह सोचने का विषय है.