मंगलवार, 16 मार्च 2010

राज अगले और पिछले जन्म का

हेवी मेकअप के साथ खूबसूरत महिलाएं ही हर जगह दिखायी दे रही हैं. समझ नहीं आता कि किसके पास जाए. कहीं दो चार पुरूष भी भाग्य को समझते हुए दिखायी दे रहे हैं. लगता है कि लोगों को उनका अगला-पिछला बताने के लिए सारे ज्योतिषी बेताब हैं.
ज्योतिष में विश्वास रखने वाले और न रखने वाले दोनों ही तरह के लोग ही दिखायी पड़ रहे हैं. उन्हें लोग न कहकर उपभोक्ता कहना ही ज्यादा बेहतर होगा क्योंकि उन्हें अपने भूत और भविष्य को जानने के लिए दाम चुकाना है. लेकिन कितना यह तो ज्योतिषी पर भी निर्भर करता है कि वह कितना प्रसिद्ध है. सुबह-सुबह न्यूज चैनलों पर छाये रहने वाले ज्योतिषी और टैरोकार्ड रीडरों के पास सबसे ज्यादा भीड़ है. नीरा सरीन जैसी जानी-मानी ज्योतिषी भी मेले में लोगों के भविष्य को बता रही हैं.
इसलिए शायद दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेले में सबसे ज्यादा कमाई लोगों को उनके भूत और भविष्य की जानकारी देने वालों की हो रही है. नक्षत्र हाल में पहुंच कर ऐसा लगता है जैसे किसी ज्योतिष मेला में आ गये हैं. एक हाथ देखने की कीमत सौ रूपये से शुरू होती है. इसी तरह से टैरो कार्ड रीडर एक सवाल पूछने के सौ से लेकर हजार रूपये तक वसूल रहे हैं. लोगों को आकर्षित और प्रभावित करने के लिए कथित भविष्यज्ञाताओं ने अपने स्टालों को पानी, धुएं, फेगंशुई और आकर्षक स्लोगनों का खूब इस्तेमाल किया है. आनंद और भारती जैसे ज्योतिषी अपने चमकदार कपड़ो और आकर्षक व्यक्तित्व से लोगों को खूब भा रहे हैं.
इनकी भविष्यवाणी कितनी सही और कितनी गलत, इसका अंदाजा लगा पाना तो मुमकिन नहीं है लेकिन युवाओं में अपनी किस्मत जानने का काफी क्रेज है. दिल्ली विश्विद्यालय के छात्र अनूप ने बताया कि वह इस सब पर विश्वास करते हैं क्योंकि काफी बातें सच भी हो जाती हैं. वहीं दूसरी ओर छात्रा ईशा का मानना है कि अगर अच्छी-अच्छी बाते उनके बारे में बतायी जाए तो वह विश्वास करती है वरना नहीं.
इस हाल में भीड़ को देखकर लग रहा था कि इंसान अपने कर्मों से ज्यादा अपनी किस्मत को लेकर उत्सुक रहता है और उसके बारे में केवल अच्छा ही सुनना चाहता है.
इतना ही नहीं लोगों को समस्याओं से निजात दिलाने के लिए उनके ग्रहों के हिसाब से भी वह नग पहन सकते है क्योंकि एक से एक नामी सर्राफा मालिकों ने अपने स्टाल लगाए हैं. जयपुर से लेकर मुंबई तक के बड़े-बड़े ज्वैलर्स मेले में खूब कमाई कर रहे हैं. इन दुकानों पर महिलाओं की भीड़ को देखकर ट्रेड फेयर की याद आने लगती है. इन दुकानों पर चूड़ियों, मालाओं, कुंडलों की बिक्री महंगे दामों पर भी खूब हो रही है. कई बार लगता है कि यह विश्व पुस्तक मेले का नहीं बल्कि सरोजिनी या लाजपत नगर का द्रश्य है.
इन्हीं सब के बीच एक दुकान पर ढाई सौ किस्म के आचार, सुपारी, सौंफ, पान आदि धड़ल्ले से बिक रहे हैं. लेकिन इससे एक सवाल उठता है कि विश्व पुस्तक मेले जैसे बड़े आयोजनों मे यह कितना ठीक है कि लोगों को रिझाने के लिए इस तरह के हथकंडों को अपनाया जा रहा है. यह सच भी तब साबित होता है जब सबसे ज्यादा भीड़ इसी तरह के स्टालों पर दिखायी देती है. इतना ही नहीं विज्ञान और तकनीक जैसे इतने महत्वपूर्ण प्रकाशकों को हाल में भी जगह नहीं मिलती. बाजारवाद और उपभोक्तावाद की संस्कृति में लोगों के बदलते रूझानों के चलते हम किस ओर जा रहे है यह सोचने का विषय है.

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